Tuesday, April 20, 2010

वेदों की मूल दुनिया

हर नयी यात्रा में मेरा प्रयत्न होता है कि कुछ नया पढ़ा जाये जिसे पढ़ने का घर पर आम व्यस्तता में समय नहीं मिलता. इस बार बँगलौर गया तो पढ़ने के लिए श्री राजेश कोच्चड़ की लिखी पुस्तक "वेदिक पीपल", यानि "वेदों के समय के लोग" पढ़ी. चूँकि आईसलैंड के ज्वालामुखी की वजह से अभी बँगलौर में रुका हुआ हूँ तो इस पुस्तक के बारे में लिखने का समय भी मिल गया. दरअस्ल, यह पुस्तक सभी वेदों को लिखने वाले लोगों की बात नहीं करती, इसका मुख्य ध्येय सबसे पहले वेद, ऋगवेद को लिखने वाले लोगों के बारे में है. साथ ही, यह पुस्तक रामायण तथा महाभारत की कुछ मुख्य घटनाओं की इतिहासिक जाँच करती है. (The vedic people - Their history and geography, by Rajesh Kocchar, Orient Blackswan 2009 - first ediation, 2000 by Orient Longman).

राजेश जी सामान्य व्यक्ति नहीं, नक्षत्रशा्स्त्र से जुड़ी भौतिकी के विषेशज्ञ हैं, बँगलौर में स्थित भारतीय नक्षत्रीय भौतिकी राष्ट्रीय संस्थान के डायरेक्टर रह चुके हैं तथा तथा आजकल दिल्ली में भारतीय विज्ञान, तकनीकी तथा विकास राष्ट्रीय संस्थान के डायरेक्टर हैं.

वेदों को लिखने वाले कौन लोग थे, वह कहाँ से आये थे, उनका क्या इतिहास था, इस सबके बारे में लिखने के लिए राजेश जी भाषा विज्ञान, साहित्य, प्राकृतिक इतिहास, पुरात्तवशास्त्र, नक्षत्रशास्त्र आदि विभिन्न दृष्टिकोणों से इस विषय की छानबीन करते हैं. उनके शौध के निष्कर्श चौंका देते हैं लेकिन उनके तर्क को नकारना कठिन है. जिस वैज्ञानिक तरीके से विभिन्न दृष्टिकोणों से उपलब्ध जानकारी को वह प्रस्तुत करते हैं, उससे यह लगता है कि किसी अन्य निष्कर्श पर पहुँचना संभव भी नहीं. इस पुस्तक को पढ़ कर, भारत की प्रचीन संस्कृति और धर्म के बारे में जो धारणाएँ थी, उनको नये सिरे से सोचने का अँकुश सा चुभता है.

पुस्तक का प्रमुख निष्कर्श है कि इंडोयूरोपी मूल के लोग एशिया के मध्य भाग में बसे थे, जहाँ इन्होंने घोड़े को पालतु बनाया, पहिये, रथों तथा घोड़ेगाड़ियों का आविष्कार किया. इन्हीं का एक गुट, पश्चिम की ओर निकला जिससे यूरोप के विभिन्न लोग बने. इन लोगों का फिनलैंड और हँगरी के मूल लोगों से सम्पर्क था जिससे दोनों की भाषाओं में आपसी प्रभाव पड़ा, जिसकी वजह से फिनिश तथा हँगेरियन इंडोयूरोपी भाषाएँ न होते हुए भी, इन भाषाओं के कुछ शब्द मिलते हैं. इन लोगों के दल विभिन्न समय पर जहाँ आज अफगानिस्तान है उस तरफ़ से हो कर ईरान भी गये और भारत की ओर भी बढ़े, जहाँ वह लोग हड़प्पा के जनगुटों से मिलजुल गये. इसी वजह से प्राचीन ईरानी धर्म जोरस्थत्रा के धर्मग्रंथ अवेस्ता में कुछ वही देवता मिलते हैं जो कि ऋगवेद में मिलते हैं जैसे कि इंद्र, मित्र, वरुण आदि. अग्नि पूजा का मूल भी दोनों लोगों को मिला.

राजेश जी के अनुसार ईसा से 1400 वर्ष पहले वहीं दक्षिण अफगानिस्तान में इसी भारतीय ईरानी मूल के कुछ लोगों ने ऋगवेद के श्लोक लिखना प्रारम्भ किया. यह श्लोक लिखने का कार्य करीब पाँच सौ वर्ष तक चला इसलिए ऋगवेद का मूल प्राचीन भाग ईसा से 900 वर्ष पहले के आसपास पूर्ण हुआ, तब तक यह लोग भारत के पश्चिमी भाग में पहुँच चुके थे. उनका कहना है कि जिस सरस्वती नदी जिसे "नदियों की माँ" कहा गया, वह दक्षिण अफगानिस्तान में बहने वाली नदी थी. उनके अनुसार रामायण की घटनाओं का समय भी ईसा से 1480 वर्ष पूर्व का है, वह सब दक्षिण अफगानिस्तान में ही घटित हुआ. महाभारत का युद्ध जो ईसा से करीब 900 वर्ष पहले हुआ, उसकी कर्मभूमि भी पश्चिम का वह हिस्सा है जहाँ आज पाकिस्तान है.

उनका कहना है पूर्व को बढ़ते यह मानव गुट, हड़प्पा के लोगों से मिल कर यायावर जीवन छोड़ कर कृषि में लगे. यह लोग अपने साथ साथ नदियों तथा जगहों के पुराने नाम भी ले कर आये और नये देश में कुछ जगहों तथा नदियों को यह पुराने नाम दिये, कुछ वैसे ही जैसे इटली, फ्राँस, ईग्लैंड से अमरीका जाने वाले प्रवासी अपने साथ अपने शहरों के नाम ले गये और नये अमरीकी शहरों को न्यू योर्क, न्यू ओरलियोन, रोम, वेनिस जैसे नाम दिये. यानि कुरुक्षेत्र, अयोध्या आदि मूल जगह दक्षिण अफगानिस्तान में थीं जिनके नामों को भारत में लाया गया. इसी वजह से ऋगवेद में गँगा नदी का नाम नहीं मिलता.

इन सब बातों के बारे में वह साहित्य, भाषाविज्ञान, पुरात्तव, गणिकी, नक्षत्रज्ञान आदि विभिन्न सूत्रों से जानकारी देते हैं, और उनके तर्कों के सामने अचरज सा होता है और लगता है कि हाँ यह हो सकता है.

किताब को पढ़ने के बाद सोच रहा था कि अगर अफगानिस्तान में पुरात्तव की खुदाई हो सके और राजेश जी कि विचारों को पक्का करने के लिए अन्य सबूत मिलने लगें तो इसका क्या असर पड़ेगा? शायद इस तरह की बातें भारत विभाजन के समय अगर मालूम होतीं तो क्या असर पड़ता?

मन में यह बात भी उठी कि पश्चिम से आने वाले यह लोग, अपने पहले आ कर बस जाने वाले लोगों से किस तरह मिले, किस तरह उनके धर्मों का समन्वय हुआ? जैसे कि हिंदू धर्म के तीन सबसे अधिक पूजे जाने वाले भगवान, राम, कृष्ण तथा शिव, तीनों ही श्याम वर्ण के कैसे हुए जबकि ऋगवेद को लिखने वाले तो गोरे रंग के थे? कैसे भारत के एक हिस्से में महोबा का पूजा होती है, दूसरे हिस्से में उसे महिषासुर कह कर मारा जाता है? कैसे पुरुष देवताओं की पूजा करने वाले आर्य भारत में बस कर शक्ति, लक्षमी और ज्ञान की देवियों को मानने लगे?

इन प्रश्नों के उत्तर कहाँ से मिलेंगे, अगर आप किसी बढ़िया किताब के बारे में जानते हों तो मुझे अवश्य बताईयेगा. आप को मिले तो राजेश कोच्चड़ की इस किताब को अवश्य पढ़ियेगा. और अगर आप इस किताब को पढ़ चुके हैं तो यह भी बतलाईयेगा कि उनके तर्क आप को कैसे लगे?
साभार Sunil Deepak पर ३:०२ AM
http://jonakehsake.blogspot.com/2010/04/blog-post.html#comment-form

Monday, April 12, 2010

आप दहेज की मांग छोड़ दीजिए और फिर देखिए कि मुसलमानों के साथ हिन्दू लड़कियों के विवाह में कितनी कमी आती है ? Dowry .

हम जिस कायनात में रहते बसते हैं इसकी एक एक चीज़ नियम में बंधी है । कायनात की हर चीज़ परिवर्तनशील है लेकिन इसी कायनात की एक चीज़ ऐसी है जो कभी नहीं बदलती और वह है नियम , जिसका पालन हर चीज़ कर रही है । अपरिवर्तनीय नियमों की मौजूदगी बताती है कि नियम बनाने और उन्हें क़ायम रखने वाली कोई अपरिवर्तनशील हस्ती ज़रूर मौजूद है । इसी हस्ती को लोग हरेक भाषा में ईश्वर , अल्लाह , गॉड , यहोवा और खु़दा वग़ैरह नामों से जानते हैं । प्रकृति और जीवों में जैसे जैसे चेतना और बुद्धि का विकास होता गया वैसे वैसे उसमें ज्ञान और सामथ्र्य का स्तर भी बढ़ता गया और मनुष्य में यह सबसे अधिक पाये जाने से वह स्वाभाविक रूप से सबसे ज़्यादा ज्ञान का पात्र ठहरा और जहां ज्ञान होता है वहां शक्ति का उदय खुद ब खुद होता है । प्रकृति की हरेक चीज़ तो नियम का पालन करने में मजबूर है लेकिन इनसान ज्ञान के कारण शक्ति के उस मक़ाम को पा चुका है कि चाहे तो वह नियम को माने और चाहे तो नियम की अवहेलना कर दे । नियम के पालन या भंग करने में तो वह आज़ाद है लेकिन नियम के विरूद्ध चलकर उसका नष्ट होना निश्चित है , यह भी कायनात का एक अटल नियम है और यह एक ऐसा नियम है कि यह इनसान पर ज़रूर लागू होता है । कोई भी इनसान न तो इसे भंग कर सकता है और न ही इसे बदल सकता है । इनसान केवल एक सामाजिक प्राणी ही नहीं बल्कि एक नैतिक प्राणी भी है । एक इनसान को व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से जीवन गुज़ारने के लिए बहुत से साधनों की ज़रूरत पड़ती है । इन साधनों को वह प्राप्त भी करता है और दूसरों को देता भी है ।
औरत की जिस्मानी बनावट मर्द के मुक़ाबले अलग है । बच्चे की पैदाइश और उसका पालन पोषण उसे एक मर्द से डिफ़रेन्ट बनाता है । शारीरिक रूप से वह मर्द के मुक़ाबले कमज़ोर भी पायी जाती है । खुद सारे मर्द भी जिस्मानी ताक़त में बराबर नहीं होते । लोगों का ज्ञान भी उनकी ताक़त में फ़र्क़ पैदा कर देता है । लोगों के हालात भी उनकी ताक़त को मुतास्सिर करते हैं ।
वह कौन सा विधान हो , जिसका पालन करते हुए अलग अलग ताक़त वाले सभी औरतों और मर्दों की सभी जायज़ ज़रूरतें उनके सही वक्त पर इस तरह पूरी हो जायें कि न तो उनकी नैतिकता प्रभावित हो और न ही उनमें आपसी नफ़रत से संघर्ष के हालात पैदा हों ?
इसी विधान का नाम धर्म है । सृष्टि के दीगर नियमों की तरह यह विधान भी स्वयं विधाता की तरफ़ से निर्धारित है । आदमी को आज़ादी है कि वह चाहे तो इस विधान को माने और चाहे तो न माने लेकिन न मानने की हालत में इनसानी सोसायटी का अन्याय और असंतुलन का शिकार होना लाज़िमी है । जहां अन्याय होगा तो फिर वहां नफ़रत और प्रतिकार भी जन्मेगा , जिसका फ़ैसला ताक़त से किया जाएगा या फिर छल और कूटनीति से । इनमें से हरेक चीज़ समस्या को बढ़ाएगी , शांति और नैतिकता को घटाएगी । इनसान अपने लिए विधान बनाने में न तो कल समर्थ था और न ही आज समर्थ है । विधाता के विधि विधान का पालन करने में ही उसका कल्याण है । पवित्र कुरआन यही बताता है । पवित्र कु़रआन ही मानवता के लिए ईश्वरीय विधान है , ईश्वर की वाणी है । यह एकमात्र सुरक्षित ईशवाणी है , ऐतिहासिक रूप से यह प्रमाणित है । यह अपनी सच्चाई का सुबूत खुद है । कोई मनुष्य इस जैसी वाणी बनाने में समर्थ नहीं है । यह अपने आपमें एक ऐसा चमत्कार है जिसे कोई भी जब चाहे देख सकता है । जैसे ईश्वर अद्वितीय है वैसे ही उसकी वाणी भी अद्वितीय है । यहां हमारे स्वदिल अज़ीज़ भाई प्रिय प्रवीण जी का एक प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि
प्रिय प्रवीण जी ! आप एक ज्ञानी आदमी हैं । इस तरह के छोटे मोटे सवाल तो आप खुद भी हल कर सकते हैं और आपकी पहंुच तो उस लिट्रेचर तक है जो बहुतों को देखने के लिए भी नसीब नहीं होता । शायद इस तरह के सवाल पूछकर आप या तो ब्लॉगर्स के ज्ञान का स्तर जांचना चाहते होंगे या फिर उनका स्तर कुछ ऊँचा उठाना चाहते होंगे ।आपने ब्लॉगवाणी से तो कभी नहीं पूछा कि जब उसके शरीर और जिव्हा नहीं है तो उसे वाणी कहां से प्राप्त हो गयी ?
मनुष्य के आधार पर ईश्वर की कल्पना करने से ही इस तरह के सवाल जन्म लेंगे और जब इन्हें हल करने की तरफ़ बढ़ा जायेगा तो फिर एक के बाद एक बहुत से दर्शन जन्म लेंगे और ईश्वर के वुजूद संबंधी प्रश्नों का अंत तब भी न होगा और तब दर्शनों के चक्कर में पड़कर न्यायपूर्ण रीति से लोगों के हक़ अदा करने की शिक्षाएं भुला दी जाएंगी ।
पूर्व में , इसलाम को जब वैदिक धर्म के नाम से जाना जाता था , तब यही कुछ हुआ । ईश्वर के अस्तित्व के बारे में प्रश्न उठा कि वह कैसा है ?
क्या वह ऐसा है ? या फिर वह ऐसा है ?
उत्तर में नेति नेति इतना कहा गया कि निर्गुण ब्रह्म की कल्पना ने जन्म ले लिया । एक ऐसा अचिन्त्य और अविज्ञेय ईश्वर जिस तक इनसान की कल्पना भी पहुंचने में बेबस है ।
यह एक ठीक बात है लेकिन इनसान तो कुछ समस्याएं भी रखता है और उनमें वह ईश्वर की मदद भी चाहता है तो फिर सगुण ईश्वर की कल्पना को जन्म लेना ही था । तब न केवल इनसानों को बल्कि मछली , कछुआ और सुअर तक को ईश्वर का अवतार मान लिया गया । ईश्वर के गुणों को निश्चित करने के चक्कर में ही निर्गुण भक्ति धारा और सगुण भक्ति धारा का जन्म हुआ । प्रयोगशाला का विषय इनसानी जिस्म है । इसकी हरेक नस नाड़ी को चीर फाड़कर देखा जा सकता है और देखा जा भी चुका है लेकिन क्या इनसानी जिस्म की सारी गुत्थियां हल कर ली गयी हैं ?
नहीं ।
ईश्वर प्रयोगशाला का विषय नहीं है । वह आपकी बुद्धि का विषय है । आप बुद्धि से काम लेंगे तो आप जान जायंगे कि हां , ईश्वर वास्तव में है । आप प्रकृति की कोई भी चीज़ देखेंगे तो आप उसमें एक डिज़ायन और व्यवस्था पाएंगे और डिज़ायन और व्यवस्था तभी मुमकिन होती है जबकि बुद्धि , ज्ञान और शक्ति से युक्त एक हस्ती मौजूद हो । इनसान किस कमज़ोर हालत में पैदा होता है लेकिन यह इनसान भी आज इस बात में सक्षम है कि रेडियो और टेलीफ़ोन जैसी निर्जीव चीज़ों को ‘वाणी‘ दे दे । इनसान ऐसे घर बना चुका है जिन्हें स्मार्ट हाउस कहा जाता है । यह घर अपने मालिक की ज़रूरतों को बिना उसके बयान किए समझ लेता है और संकेत मात्र से पूरा भी कर देता है । इनसान तो निर्जीव भी नहीं है । उसके अन्तःकरण में सर्वथा समर्थ परमेश्वर की ओर से वाणी का अवतरण तो किंचित भी ताज्जुब की बात न होना चाहिये । ख़ास तौर से तब जबकि इनसान खुद बिना किसी ज़ाहिरी सबब के दूसरे आदमी के मन में अपना पैग़ाम पहुंचाने में सक्षम है । इस विद्या को टेलीपैथी के नाम से जाना जाता है ।
मुस्लिम सूफ़ियों , हिन्दू योगियों और बौद्ध साधकों के लिए यह एक मामूली सी बात है और आज पश्चिमी देशों में यह विद्या भी दीगर विद्याओं की तरह सिखाई जाती है । जब खुद इनसान ही बिना जिव्हा के अपना पैग़ाम दूसरे इनसानों तक पहुंचा सकता है तो फिर उस सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान परमेश्वर के बारे में ही इसे क्यों असंभव मान लिया जाए ?
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एक प्रबुद्ध व्यक्ति के प्रश्न के जवाब के बाद एक वेबकृमि की इस चिन्ता पर क्या टिप्पणी की जाए कि लड़के लड़कियां अन्तरधार्मिक विवाह क्यों कर रहे हैं ?
नरगिस समेत बहुत सी फ़िल्मी हीरोइनों ने हिन्दू भाइयों से विवाह किया । क्या उन कलाकार मर्दों को किसी गुरूकुल या आश्रम से ऐसा करने का आदेश या मिशन दिया गया था ?
काम तो ऐसा प्रबल होता है कि जब इसका आवेग उठता है तो एक ऐसा व्यक्ति भी केवट की कन्या से नाव में , बीच पानी में ही बलात्कार कर बैठता है जिसे दुनिया ऋषि समझती थी । विश्वामित्र भी मेनका के वार से न बच पाए । मुरली की तान सुनकर तो सभी गोपियां अपने पति और बच्चों तक को बिसराकर अपने आशिक़ के पास भागा करती थीं । ऐसा पुराण बताते हैं लेकिन मैं इसे सत्य नहीं मानता , लेकिन जो लोग इसे सत्य मानते हैं उनके लिए यह प्रमाण बनेगा । शकुंतला ने दुष्यंत को अपना सर्वस्व सौंपने से पहले कब पिता की अनुमति ली थी ?ज़्यादा लिखना मैं मुनासिब नहीं समझता क्योंकि इन प्रसिद्ध कथाओं को सभी जानते हैं ।प्रेम विवाह या गंधर्व विवाह प्राचीन भारतीय परम्परा है । कितनी ही मुस्लिम लड़कियां आज हिन्दुओं के घरों में बैठी गाय के गोबर से चैका लीप रही हैं । ठीक ऐसे ही कुछ हिन्दू लड़कियों ने मुसलमानों के साथ वक्त गुज़ारा । उन्हें बरता , परखा और फिर अपने क़ानूनी हक़ का इस्तेमाल करते हुए उनसे जीवन भर का नाता जोड़ लिया ।
जब औरत मर्द आपस में घुलमिलकर अंतरंग सम्बन्ध बनाएंगे तो यह स्थिति तो आएगी ही , मुस्लिम के साथ भी और ग़ैर मुस्लिम के साथ भी । इसमें हाय तौबा मचाने और इसलाम को बदनाम करने की क्या ज़रूरत है ?
इसलाम की तालीम तो मर्द के लिए यह है कि वह न तो औरत को तकने या घूरने का गुनाह करे और न ही वह औरत को छुए , चाहे औरत मुस्लिम हो या ग़ैर मुस्लिम ।
और अफ़सोस है ऐसी बहनों पर जो अक्ल के दुश्मनों की हां में हां मिलाकर उनकी भलसुगड़ाई बटोरना चाहती हैं ताकि उन्हें सामान्य मुसलमान न समझा जाए बल्कि उन्हें विशिष्ट चिंतक समझा जाए और उनकी तरक्क़ी होती रहे । आज माता की कथाएं सहेलियों को पढ़कर सुनाई जा रही हैं तो कल सास को भी सुनाई जाएंगी । कोई कुछ पढ़े और किसी को सुनाए या किसी हिन्दू के साथ ही घर बसाए , हमें कोई ऐतराज़ नहीं है । हमें तो ऐतराज़ इस बात पर है कि बहन जी अलगाववादी नामहीन लौंडे के ब्लॉग पर कह रही हैं कि इसलाम में किसी हिन्दू लड़की को मुसलमान करने पर 72 हूरों का लालच दिया गया है । हमें पवित्र कुरआन की हज़ारों आयतों और लाखों हदीसों में इस अर्थ की कोई एक भी आयत या सही हदीस दिखाईये वर्ना तौबा कीजिए । किसी भी बड़े मदरसे के आलिम का जायज़ा ले लीजिये , उसकी पत्नी पुश्तैनी मुसलिम घराने से ही मिलेगी । मौलवी साहिबान के घरों में तो कोई हिन्दू लड़की नहीं मिलेगी , हां उनकी तालीम से हटकर चलने वाले कलाकारों , नेताओं और पत्रकारों के घरों में ज़रूर हिन्दू लड़कियां ज़रूर मिल जाएंगी । हिन्दू लड़कियां मुसलमान लड़कों से ब्याह क्यों कर रही हैं ?
क्योंकि हिन्दू लड़कों के बाप तो अपने बेटों की ऊँची क़ीमत वसूलते हैं और हरेक लड़की के बाप में इतनी क़ीमत देने की ताक़त होती नहीं । अब लड़की करे तो क्या करे ?
आप दहेज की मांग छोड़ दीजिए और फिर देखिए कि मुसलमानों के साथ हिन्दू लड़कियों के विवाह में कितनी कमी आती है ?
मुसलमान से ब्याह करने के पीछे ख़तना भी एक बड़ा कारण है क्योंकि ख़तना के बाद लिंगाग्र कपड़े की रगड़ खाता है जिससे उसमें घर्षण के समय स्तम्भन का स्वभाव विकसित हो जाता है और वह अपनी प्रिया को पूर्ण संतुष्ट करने में सक्षम होता है ।
मुसलमान भोजन में प्रायः वे चीज़ें खाता है जो भारद्वाज ऋषि ने भरत जी की सेना को उस समय परोसी थीं जब वे मेरे प्रिय श्री रामचन्द्र जी को वापस लाने के लिए निकले थे और उनका पता पूछने के लिए उनके आश्रम में एक रात के लिए ठहरे थे । आयुर्वेद भी उन्हें पुष्टिकारक मानता है । इससे भी मुसलमान ज़्यादा पुष्ट होकर अपनी प्रिया को ज़्यादा संतुष्ट करता है ।
लव जिहाद का भी चर्चा ख़ामख्वाह किया जाता है ।
ऐसा कोई जिहाद हिन्दुस्तान में नहीं चल रहा है । लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि जिहाद कोई भी हो , उसे लड़ने के लिए मज़बूत हथियार और अच्छी ट्रेनिंग की ज़रूरत पड़ती है । हरेक हिन्दू को देखना चाहिये कि लव जिहाद में काम आने वाला हथियार कौन सा है ? और उसका हथियार कितना सक्षम है ?
उसने ट्रेनिंग किस गुरू से ली है ?
सन्यासियों से गृहस्थ धर्म की ट्रेनिंग लोगे तो फिर कुवांरी लड़कियां मुसलमानों की पनाह में आएंगी और शादीशुदा औरतें किसी इच्छाधारी का दामन थामेंगी । कारगिल हो या ताज़ा नक्सली हमला , हरेक चोट के बाद यही हक़ीक़त सामने आयी कि सैनिकों के हथियार भी वीक थे और उनकी ट्रेनिंग भी नाकाफ़ी थी । यही बात तथाकथित लव जिहाद के प्रकरण में है ।तुम्हारी लड़कियां अगर दूसरों के पास जा रही हैं तो यह तुम्हारी कमी और कमज़ोरी के कारण है । अपनी ‘वीकनेस‘ को दूर कीजिए , मुसलमानों को दोष क्यों देते हो ?