भाई अमित शर्मा जी ने एक पत्रिका से उदृधृत करते हुए यह पोस्ट पेश की थी। इस पोस्ट पर भाई प्रतुल वशिष्ठ जी ने एक ऐसा कमेंट किया जिसने हमें चौंका दिया।
प्रतुल वशिष्ठ जी ने कहा कि स्वामी विवेकानंद जी गौमांस खाकर बीमार पड़ गए थे और इसी बीमारी में वह मर गए।
हमारे लिए यह जानकारी अचंभित करने वाली थी कि एक हिंदू सन्यासी मांस खाए और वह भी पवित्र गौ का ?
इसीलिए इस पोस्ट को हम यहां पेश कर रहे हैं ताकि जो लोग यह बात नहीं जानते, वे भी इस बात को जान लें कि सच्चाई क्या है ?
वह पोस्ट निम्न है-
सोमवार, १५ नवम्बर २०१०
यज्ञ हो तो हिंसा कैसे ।। वेद विशेष ।। भाग -- २
इस संसार में अनेक प्रकार की प्रकृति के लोग है ; गीताजी में उनको दो भागों में विभक्त किया गया है ------ एक दैवी प्रकृति के तथा दूसरे आसुरी प्रकृति के मनुष्य----
इन दोनों प्रकार की प्रकृति के मनुष्यों के बारे में कुछ बताने की आवश्यकता ही नहीं है. फिर भी बिलकुल सूक्ष्म रूप से कहना चाहे तो कह सकते है की दैवी प्रकृति के लोग सात्विक जीवनचर्या का निर्वहन करते हुए परोपकार में निरत रहते है, जबकि आसुरी वृत्ति के मनुष्य दंभ,मान और मद में उन्मत्त हुए स्वेच्छाचार पूर्ण आचरण करते हुए पापमय जीवन जीते है.
बतलाने की आवश्यकता नहीं की प्राय ऐसे आसुरी लोग ही मांस-भक्षण और अश्लील सेवन की रूचि रखते है, और ऐसे कुक्करों ने ही अर्थ का अनर्थ करके वेद आदि शास्त्रों में मद्य मांस तथा मैथुन की आज्ञा सिद्ध करने की धृष्टता की है.
महाभारत में कहा गया है की प्राचीन काल से यज्ञ-याग आदि केवल अन्न से ही होते आये है. मद्य-मांस की प्रथा इन धूर्त असुरों ने अपनी मर्जी से चला दी है. वेद में इन वस्तुओं का विधान ही नहीं है------
असुर शब्द का अर्थ ही है --- "प्राण का पोषण करने वाला" जो अपने सुख के लिए दूसरे प्राणियों की हिंसा करते है वे सभी असुर है. ये शास्त्र पड़ते हि इसलिए है की शास्त्र का मनमाना अर्थ करके येनकेन प्रकारेण शब्दों की व्युत्पत्ति करके खींचतान से चाहे जो अर्थ निकाल कर शास्त्रों की मर्यादा का नाश किया जा सके. इन कुकर्मियों द्वारा वेदों द्वारा यज्ञों में मद्य-मांस का विधान, पशुवध की रीति बतायी गयी है ऐसा कहा जाता है .
वेद साक्षात भगवान् की वाणी है, उनमें ऐसी कोई बात कभी नहीं हो सकती जो मनुष्य को अनर्गल विषयभोग और हिंसा की और जाने के लिए प्रोत्साहित करती हो. वेद भगवान् की तो स्पष्ट आज्ञा है ------------ "मा हिंस्यात सर्वा भूतानि" ( किसी भी प्राणी की हिंसा ना करें ).
बल्कि यज्ञ के ही जो प्राचीन नाम है उनसे ही यह सिद्ध हो जाता है की यज्ञ सर्वथा अहिंसात्मक होते आये है.
"ध्वर" शब्द का अर्थ है हिंसा. जहाँ ध्वर अर्थात हिंसा ना हो उसी का नाम है "अध्वर" . यह "अध्वर" ही यज्ञ का पर्यायवाची नाम है . अतः हिंसात्मक कृत्य कभी भी वेद विहित यज्ञ नहीं माना जा सकता है.
"यज" धातु से "यज्ञ" बनता है. इसका अर्थ है----- देवपूजा,संगतिकरण और दान. इनमें से कोई से भी क्रिया हिंसा का संकेत नहीं करती है.
वैदिक यज्ञों में तो मांस का इतना विरोध है की मांस जलाने वाली आग को सर्वथा ताज्य घोषित किया गया है. प्राय: चिताग्नि ही मांस जलाने वाली होती है. जहाँ अपनी मृत्यु से मरे हुए मनुष्यों के अंत्येष्टि-संस्कार में उपयोग की जाने वाली अग्नि का भी बहिष्कार है, वहाँ पावन वेदी पर प्रतिष्ठापित विशुद्ध अग्नि में अपने द्वारा मरे गए पशु के होम का विधान कैसे हो सकता है ?
आज भी जब वेदी पर अग्नि की स्थापना होती तो उसमें से अग्नि का थोडा सा अंश निकालकर बाहर रख दिया जाता है. इस भावना के साथ की कहीं उसमें क्रव्याद (मांस-भक्षी या मांस जलाने वाली अग्नि ) के परमाणु ना मिले हो. अत: "क्रव्यादांशं त्यक्त्वा" (क्रव्याद का अंश निकालकर ही ) होम करने की विधि है.
ऋग्वेद का वचन है-------
ऋग्वेद में तो यहाँ तक कहाँ गया है की जो राक्षस मनुष्य,घोड़े और गाय आदि पशुओं का मांस खाता हो तथा गाय के दूध को चुरा लेता हो, उसका मस्तक काट डालो --------
"द्वौ भूतसर्गौ लोकेsस्मिन दैव आसुर एव च"
इन दोनों प्रकार की प्रकृति के मनुष्यों के बारे में कुछ बताने की आवश्यकता ही नहीं है. फिर भी बिलकुल सूक्ष्म रूप से कहना चाहे तो कह सकते है की दैवी प्रकृति के लोग सात्विक जीवनचर्या का निर्वहन करते हुए परोपकार में निरत रहते है, जबकि आसुरी वृत्ति के मनुष्य दंभ,मान और मद में उन्मत्त हुए स्वेच्छाचार पूर्ण आचरण करते हुए पापमय जीवन जीते है.
बतलाने की आवश्यकता नहीं की प्राय ऐसे आसुरी लोग ही मांस-भक्षण और अश्लील सेवन की रूचि रखते है, और ऐसे कुक्करों ने ही अर्थ का अनर्थ करके वेद आदि शास्त्रों में मद्य मांस तथा मैथुन की आज्ञा सिद्ध करने की धृष्टता की है.
महाभारत में कहा गया है की प्राचीन काल से यज्ञ-याग आदि केवल अन्न से ही होते आये है. मद्य-मांस की प्रथा इन धूर्त असुरों ने अपनी मर्जी से चला दी है. वेद में इन वस्तुओं का विधान ही नहीं है------
१. श्रूयते हि पुरा कल्पे नृणां विहिमयः पशु: ।
येनायजन्त यज्वानः पुण्यलोकपरायणाः ।।
२. सुरां मत्स्यान मधु मांसमासवं क्रसरौदनम ।
धुर्ते: प्रवर्तितं ह्योतन्नैतद वेदेषु कल्पितम ।।
असुर शब्द का अर्थ ही है --- "प्राण का पोषण करने वाला" जो अपने सुख के लिए दूसरे प्राणियों की हिंसा करते है वे सभी असुर है. ये शास्त्र पड़ते हि इसलिए है की शास्त्र का मनमाना अर्थ करके येनकेन प्रकारेण शब्दों की व्युत्पत्ति करके खींचतान से चाहे जो अर्थ निकाल कर शास्त्रों की मर्यादा का नाश किया जा सके. इन कुकर्मियों द्वारा वेदों द्वारा यज्ञों में मद्य-मांस का विधान, पशुवध की रीति बतायी गयी है ऐसा कहा जाता है .
वेद साक्षात भगवान् की वाणी है, उनमें ऐसी कोई बात कभी नहीं हो सकती जो मनुष्य को अनर्गल विषयभोग और हिंसा की और जाने के लिए प्रोत्साहित करती हो. वेद भगवान् की तो स्पष्ट आज्ञा है ------------ "मा हिंस्यात सर्वा भूतानि" ( किसी भी प्राणी की हिंसा ना करें ).
बल्कि यज्ञ के ही जो प्राचीन नाम है उनसे ही यह सिद्ध हो जाता है की यज्ञ सर्वथा अहिंसात्मक होते आये है.
"ध्वर" शब्द का अर्थ है हिंसा. जहाँ ध्वर अर्थात हिंसा ना हो उसी का नाम है "अध्वर" . यह "अध्वर" ही यज्ञ का पर्यायवाची नाम है . अतः हिंसात्मक कृत्य कभी भी वेद विहित यज्ञ नहीं माना जा सकता है.
"यज" धातु से "यज्ञ" बनता है. इसका अर्थ है----- देवपूजा,संगतिकरण और दान. इनमें से कोई से भी क्रिया हिंसा का संकेत नहीं करती है.
वैदिक यज्ञों में तो मांस का इतना विरोध है की मांस जलाने वाली आग को सर्वथा ताज्य घोषित किया गया है. प्राय: चिताग्नि ही मांस जलाने वाली होती है. जहाँ अपनी मृत्यु से मरे हुए मनुष्यों के अंत्येष्टि-संस्कार में उपयोग की जाने वाली अग्नि का भी बहिष्कार है, वहाँ पावन वेदी पर प्रतिष्ठापित विशुद्ध अग्नि में अपने द्वारा मरे गए पशु के होम का विधान कैसे हो सकता है ?
आज भी जब वेदी पर अग्नि की स्थापना होती तो उसमें से अग्नि का थोडा सा अंश निकालकर बाहर रख दिया जाता है. इस भावना के साथ की कहीं उसमें क्रव्याद (मांस-भक्षी या मांस जलाने वाली अग्नि ) के परमाणु ना मिले हो. अत: "क्रव्यादांशं त्यक्त्वा" (क्रव्याद का अंश निकालकर ही ) होम करने की विधि है.
ऋग्वेद का वचन है-------
क्रव्यादमग्निं प्रहिणोमि दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः ।
एहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन ।।
( ऋ ७।६।२१।९ )
"मैं मांस भक्षी या जलाने वाली अग्नि को दूर हटाता हूँ, यह पाप का भार ढोने वाली है ; अतः यमराज के घर में जाए. इससे भिन्न जो यह दूसरे पवित्र और सर्वज्ञ अग्निदेव है, इनको ही यहाँ स्थापित करता हूँ. ये इस हविष्य को देवताओं के समीप पहुँचायें ; क्योंकि ये सब देवताओं को जानने वाले है."
ऋग्वेद में तो यहाँ तक कहाँ गया है की जो राक्षस मनुष्य,घोड़े और गाय आदि पशुओं का मांस खाता हो तथा गाय के दूध को चुरा लेता हो, उसका मस्तक काट डालो --------
यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्गक्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः ।
यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च ।।
यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च ।।
( ऋ ८।४।८।१६ )
अब प्रश्न होता है की वेदों में आदि मांस वाचक या हिंशा बोधक कोई शब्द ही प्रयुक्त न हुआ होता तो कोई उसका इस तरह का अर्थ कैसे निकाल सकता है ?
इसका चिंतन करने योग्य सरल उत्तर यह है की प्रकृति स्वभावतः निम्न गामी होती है ; अतः प्रकृति के वश में रहने वाले मनुष्यों की प्रवृत्ति स्वभावतः विषयभोग की ओर जाती है. आसुरी स्वाभाव वाले विशेष रूप से निकृष्ट भोगों की तरफ जातें है. ओर उनकी प्राप्ति के साधन खोजतें है. इसी न्याय से इन आसुरी प्रकृति के लोगों ने वेद कथनों का मनमाना अर्थ लगा कर अपने कुकर्मों को वेद विहित कर्म घोषित कर दिया.
महाभारत में प्रसंग आता है की एक बार ऋषियों और दूसरे लोगों में "अज" शब्द के अर्थ पे विवाद हुआ. ऋषि पक्ष का कहना था की "अजेन यष्टव्यम" का अर्थ है "अन्न से यज्ञ करना चाहिये. अज का अर्थ है उत्पत्ति रहित; अन्न का बीज ही अनादी परम्परा से चला आ रहा है; अतः वही "अज" का मुख्य अर्थ है; इसकी उत्पत्ति का समय किसी को ज्ञात नहीं है; अतः वही अज है."
दूसरा पक्ष अज का अर्थ बकरा करता था. दोनों पक्ष निर्णय कराने के लिए राजा वसु के पास गए. वसु कई यज्ञ कर चुका था . उसके किसी भी यज्ञ में मांस का प्रयोग नहीं हुआ था, पर उस समय तक वह मलेच्छों के संपर्क में आकर ऋषि द्वेषी बन गया था. ऋषि उसकी बदली मनोवृत्ति से अनजान उसी के पास न्याय करवाने पहुँच गए . उसने दोनों का पक्ष सुनकर ऋषियों के मत के विरुद्ध निर्णय देते हुए कहा " छागेनाजेन यष्टव्यम" . असुर तो यही चाहते थे. वे इस मत के प्रचारक बन गए; पर ऋषियों ने इस मत को स्वीकार नहीं किया, क्योंकि यह किसी भी हेतु से संगत नहीं बैठता था.
संस्कृत-वांग्मय में अनेकार्थ शब्द बहुत है. "शब्दा: कामधेनव:" यह प्रसिद्द है. उनसे अनेक अर्थों का दोहन होता है. पर कौन सा अर्थ कहाँ लेना ठीक है यह विवेकशीलता का काम है. कोई यात्रा पर जा रहा हो और "सैन्धव" लाने के लिए काहे तो उस समय "नमक" लाने वाला मुर्ख ही कहलायेगा, उस समय तो सिन्धु देशीय घोड़ा लाना ही उचित होगा. इसी तरह भोजन में सैन्धव डालने के लिए कहने पर नमक ही डाला जाएगा घोड़ा नहीं .
इसी तरह आयुर्वेद में कई दवाइयों में घृतकुमारी (ग्वारपाठा) का उपयोग होता है, तो जहां दवा बनाने की विधि में " प्रस्थं कुमारिकामांसम " लिखा गया है; वहाँ किलो भर घृतकुमारी/ग्वारपाठा/घीकुंवार का गूदा ही डाला जाएगा . कुँवारी-कन्या का एक किलो मांस डालने की बात तो कोई नरपिशाच ही सोच सकता है.
(साभार कल्याण उपनिषद-अंक)
जारी..............
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